भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हेमन्त / रैनेर मरिया रिल्के / अज्ञेय
Kavita Kosh से
पत्ते झड़ते हैं,
झड़ते हैं कहीं बड़ी दूरी से
मानो उजड़ते हों स्वर्ग में
सुदूर नन्दन - वन
झड़ते हैं,
भंगिमा है उनकी नकार की,
उत्सर्ग की ।
हजारों तारों के बीच से
रातों में गिरती यह भार-भरी
धरा डूब जाती है एक अकेलेपन में ।
गिरते हैं हम सब ।
ये हाथ भी गिरने वाले हैं ।
और देख लो औरों को भी :
सभी के साथ यह लगा है ।
पर है,
एक है जो गिरने मात्र का सगा है —
जो अशेष स्नेह-भरे करों में
सब को सम्भाले है ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय