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05:57, 20 जुलाई 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मृत्युंजय कुमार सिंह
|अनुवादक=
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<poem>
आपस में लिपटे
तरु, लता, जड़ें, वल्लरियाँ
समन्वय की अनगिनत लड़ियाँ
धूप, हवा, छाँव,
टूटे, टेढ़े, खड़े - जैसे भी हो पाँव
सबमें निर्झर-सी बहती साझेदारी।
ये सभ्यता का नगर नहीं है
ये जंगल है,
यहाँ सब कुशल-मंगल है।
</poem>