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{{KKRachna
|रचनाकार= लिअनीद मर्तीनफ़
|अनुवादक= वरयाम सिंह
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<poem>
मकान बन रहे ऊँचे और ऊँचे
वास्‍तुकारों की अमर रहे क्रीर्ति !
पर मनुष्‍य तो कुछ और चाहता है
जो है उससे बेहतर ।

लिखी जा रही है पुस्‍तकें एक-से-एक अच्‍छी
सम्भव नहीं सबको पढ़ पाना,
पर मनुष्‍य तो कुछ और चाहता है
जो है उसे बेहतर ।

सूक्ष्‍म और सूक्ष्‍म हो रही हैं इन्द्रियाँ
उनकी संख्‍या पाँच नहीं छह है
पर मनुष्‍य तो कुछ और चाहता है
जो है उससे बेहतर ।

चाहता है जानना जो अभी अज्ञात है
छिपा है जो रहस्‍यों के पीछे
छठी इन्द्रिय के स्‍थान पर
आ रही है अब सातवीं ।

इस सातवीं इन्द्रिय की
अलग-अलग हो रही है व्‍याख्‍याएँ
सम्भव है -- यह वो सहज योग्‍यता हो
जिसके बल पर स्‍पष्‍ट देखा जा सकता है भविष्‍य को ।

 '''मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह'''
</poem>
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