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{{KKRachna
|रचनाकार=माया एंजलो
|अनुवादक=शुचि मिश्रा
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<poem>
जो विकृत और कड़वे झूठ हैं तुम्हारे पास
निस्सन्देह उनसे तुम ग़लत दर्ज करोगे मेरा इतिहास
धूल में मिला सकते हो तुम मुझे गिर-गिर
किन्तु मैं उसी धूल से खड़ी होंऊँगी फिर-फिर

क्या मेरी साफ़गोई दुखी करती है तुम्हें
तुम दुख में क्यों डूब जाते हो ?
शायद इसलिए कि मैं अपने मान से चलती हूँ
मानो कि तेल की कुएँ हों मेरी बैठक में
चाँद-सूरज की तरह
और ज्वार की तरह दृढ़ता से
जैसे उत्ताल आकांक्षाएँ उठती हैं, वैसे मैं भी

क्या तुमने टूटा हुआ देखना चाहा है मुझे
झुका हुआ सिर और झुकी हुई नज़रें
या फिर दिल दहला देने वाली मेरी रुलाई
और अश्क़ों के क़तरों से झुके हुए कन्धे
क्या मेरे गर्व से अपमानित होते हो तुम
मैं हँसती हूँ इस अभिमान के साथ जैसे
मेरे घर के आँगन में निकल आई हों स्वर्ण-ख़ानें

अपने शब्द-शर से मुझे बेध सकते हो तुम
तहस-नहस कर सकते हो अपनी पैनी नज़रों से
अपनी नफ़रत से कर सकते हो मेरी हत्या
लेकिन मैं फिर भी खड़ी हो जाऊँगी जैसे हवा

क्या गुस्सा दिलाती है तुम्हें मेरी मादकता
क्या तुम्हें मुझे देखकर होता है अचम्भा
जब मैं ऐसे नाचती हूँ
जैसे हीरे छुपा रखे जँघाओं के मध्य

मैं हूँ झुग्गियों से उगी ऐतिहासिक शर्म से बनी
मैं दुख से उदित अपने व्यतीत से उठी हूँ
विशाल स्याह महासागर हिलोरता है, वह मैं हूँ
जो छलछलाते उमड़ते-घुमड़ते ज्वार समेटे हो
डर और विध्वंस की निशा छोड़ती, उठ जाती हूँ
एक अनोखे उज्जवल सवेरे में होता है मेरा उदय
लाई हूँ अपने साथ पूर्वजों के दिए गए तोहफ़े
दासों के स्वप्न और आशा हूँ मैं
उठती हूँ... उठती हूँ... फिर-फिर !

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : शुचि मिश्रा'''
</poem>
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