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फ़र्क / भवानी प्रसाद मिश्र

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<poem>
मेरा और तुम्हारा
सारा फ़र्क
इतने में है

कि तुम लिखते हो
मैं बोलता हूँ
और कितना फ़र्क हो जाता है इसमें ?

तुम ढाँकते हो,
मैं खोलता हूँ ।

'''यह कविता कवि की मूल हस्तलिखित पाण्डुलिपि से लेकर यहाँ प्रस्तुत की गई है और 2002 में प्रकाशित कवि की रचनावली में शामिल नहीं है।'''
</poem>
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