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<poem>
डाकिये का दीख जाना
मुस्कुराते हुए आना
भला लगता है ।

सोचता हूँ कुछ देर
बैठाल कर बातें करूँ
सामने सिगरेट, बीड़ी,
चाय की प्याली धरूँ ।

कसे घोड़े को कहाँ फ़ुरसत ?
‘मेहरबानी आपकी’ कहते हुए
चिट्ठियाँ आगे बढ़ाना
भला लगता है ।

नौकरी ने इस क़दर
बाँधा हुआ है आदमी
वक़्त के पाबन्द को ही
वक़्त की रहती कमी ।

इन कमेरे सधे हाथों से
द्वार पर सम्पर्क के स्वर में
साइकिल का टनटनाना
भला लगता है ।
</poem>
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