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07:27, 28 फ़रवरी 2024 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रवि ज़िया
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|संग्रह=
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<poem>
रफ़्ता रफ़्ता मेरे घर तक आ पहुँचा
शोर समंदर का अंदर तक आ पहुंचा
गिरता जाये पत्ता-पत्ता शाख़ों से
दुख का मौसम सब्ज़ शजर तक आ पहुँचा
धूप में साये का पीछा करते-करते
मैं ये किस बेनाम नगर तक आ पहुँचा
इतनी गहरी थी मंज़र की ख़ामोशी
सन्नाटा मेरे अंदर तक आ पहुँचा
धूप अचानक हाथ छुड़ा कर चली गई
कुहरे का बादल मंज़र तक आ पहुँचा
भूल गया था अपना पता ठिकाना भी
शुक्र करो मैं वापस घर तक आ पहुँचा
ख़ैर मनाओ घर के बन्द दरीचों की
दस्ते-फ़रियादी पत्थर तक आ पहुँचा
दिल की बात 'ज़िया' कब उस तक पहुँचेगी
चढ़ता पानी अब तो सर तक आ पहुँचा।
</poem>