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15:11, 20 नवम्बर 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|संग्रह=
}}
<Poem>
:पीपल का पात हिला
उससे ही पता चला
:अभी सृष्टि ज़िन्दा है
शाहों ने मरण रचा
बस्तियाँ मसान हुईं
सुभ-शाम-दुपहर औ' रातें
बेजान हुईं
:कहीं कोई फूल खिला
उससे ही पता चला
:अभी सृष्टि ज़िन्दा है
शहज़ादों का खेला
गाँव-गली रख हुए
सारे ही आसमान
अंधियारा पाख हुए
:एक दीया जला मिला
उससे ही प्ता चला
:अभी सृष्टि ज़िन्दा है
नाव नदी में डूबी
रेती पर नाग दिखे
संतों की बानी का
कौन भला हाल लिखे
:रंभा रही कपिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है।
</poem>