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|संग्रह=रास्ता बनकर रहा / राहुल शिवाय
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<poem>
रंग चाहे जो भी हों किरदारों की दस्तार में
आस्था सरकार की रहती है कारोबार में

हर तरफ़ मायूस पतझड़ ही दिखाई दे रहा
कोहरे ने धूप का सौदा किया बाज़ार में

अगजनी में हैं उन्हीं के हाथ सुन लो साथियो!
आज जो सम्मान पाने जा रहे दरबार में

कौन जुर्रत प्यार करने की करेगा अब यहाँ
नफ़रतों ने प्यार को चुनवा दिया दीवार में

भूख के क़िस्से हमारी शायरी तक ही रहे
और विज्ञापन सजे हर दिन यहाँ अख़बार में

गाँव, घर, बस्ती, नगर सब कुछ वहीं पर रह गया
सिर्फ़ महँगाई बढ़ी, इस वक़्त की रफ़्तार में

एक दिन होगा तुम्हारे ज़ुल्म का भी फ़ैसला
जीत यह बदलेगी जिस दिन हार के आकार में
</poem>
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