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15:50, 20 नवम्बर 2008 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विकास
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<Poem>
हालात के लिहाज से ऊँचाईयाँ मिलीं
लेकिन खुली किताब तो रुसवाइयाँ मिलीं
ज़िन्दा नहीं रहा कोई लाशों की भीड़ में
सरहद के पास क्या कभी शहनाइयाँ मिलीं
चलती रही हवा कभी बादल को देखकर
गर चल पड़ी तो फिर उसे पुरवाइयाँ मिलीं
रातों को गर चला कभी तन्हा नहीं हुआ
चलता रहा तो मैं मुझे परछाइयाँ मिलीं
कह के गई है फिर नदी कश्ती को छोड़ जा
सागर के जैसी फिर मुझे गहराइयाँ मिलीं
</poem>