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15:56, 20 नवम्बर 2008 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विकास
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<Poem>
परों को काट्कर सुनवाइयाँ करने लगा क़ातिल
परिन्दे हैं बहुत मासूम यह कहने लगा क़ातिल
हज़ारों अधमरे सपने घटा की आँख से लेकर
किसी बारिश के मौसम में उन्हें रखने लगा क़ातिल
नदी को लांघकर जब सामने आया परिन्दा तो
इमारत की किसी बुनियाद-सा हिलने लगा क़ातिल
किसी की झील-सी आँखों में सपनों को बिखरते देख
उदासी ओढ़कर जज़्बात को पढ़ने लगा क़ातिल
किराए के घरों में क़ैद उन बीमार बच्चों के
दवा के खर्च का अनुमान कर हँसने लगा क़ातिल
</poem>