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15 अगस्त {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राहुल शिवाय
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पता चला
दिल्ली में रहकर
दिल्ली कितनी दूर
बस, मेट्रो
पैदल, ऑटो से
दिन-दिन भर का चक्कर
सिर्फ़ डिग्रियाँ
काम न आतीं
बोल रहे हैं दफ़्तर
कोर्स सभी
ठिगने लगते हैं
मन लगता मजबूर
चमगादड़
बनकर महँगाई
मँडराती है सिर पर
और हाँफती
साँसें जीतीं
लम्हा-लम्हा डरकर
सपनों को
आधा कर देना
दिल्ली का दस्तूर
रात-रात भर
जगती रातें
रेस ख़त्म कब होती
दिल्ली मुश्किल
से ही दो पल
कभी चैन से सोती
लेकिन दिल्ली
में रहना भी
देता एक गुरूर।
</poem>