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दिल्ली कितनी दूर (नवगीत) / राहुल शिवाय

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पता चला
दिल्ली में रहकर
दिल्ली कितनी दूर

बस, मेट्रो
पैदल, ऑटो से
दिन-दिन भर का चक्कर
सिर्फ़ डिग्रियाँ
काम न आतीं
बोल रहे हैं दफ़्तर

कोर्स सभी
ठिगने लगते हैं
मन लगता मजबूर

चमगादड़
बनकर महँगाई
मँडराती है सिर पर
और हाँफती
साँसें जीतीं
लम्हा-लम्हा डरकर

सपनों को
आधा कर देना
दिल्ली का दस्तूर

रात-रात भर
जगती रातें
रेस ख़त्म कब होती
दिल्ली मुश्किल
से ही दो पल
कभी चैन से सोती

लेकिन दिल्ली
में रहना भी
देता एक गुरूर।