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18 जनवरी {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ऋचा दीपक कर्पे
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
दूर तक फैला असीम सागर
और सागर की गहराइयाँ
गहराइयों के बढ़ते चले जाने से
बढ़ता चला जाता है दबाव
गहराइयों में गंभीरता है...
और उथले जीवन में अल्हड़पन...
सागर का नीला-हरा पानी
दूर-दूर तक कोई किनारा नही
बढ़ता जाता है विस्तार निरंतर
अकेलापन उतना ही गहराता है
छोटे-से दायरे में जीवन है
और विस्तार में खालीपन...
सागर के भीतर फैली
एक अलहदा-सी चमकीली दुनिया
सीपियों में बंद पानी की बूंद
तय है उसका मोती बन जाना
बाहर हर खारी बूंद आँसू है
और सागर में बेशकीमती है खारापन!
</poem>