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07:44, 16 जनवरी 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सौदा
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[[category: ग़ज़ल]]
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तुझ बिन बहुत ही कटती है औक़ात1 बेतरह
जूँ-तूँ के दिन तो गुज़रे है, पर रात बेतरह
होती है एक तरह से हर काम की जज़ा2
आमाले-इश्क़ की3 है मकाफ़ात4 बेतरह
बुलबुल, कर इस चमन में समझकर टुक आशियाँ
सैयाद5 लग रहा है तिरी घात बेतरह
पूछा पयामबर6 से जो मैं यार का जवाब
कहने लगा ख़मोश कि है बात बेतरह
मिलने न देगा हमसे तुझे एक दम रक़ीब
पीछे लगा फिरे हैवो बद्ज़ात की तरह
कोई ही मू7 रहे तो रहे इसमें शैख़ जी
दाढ़ी पड़ी है शाना8 के अब हाथ बेतरह
'सौदा' न मिल, कर अपनी तू अब ज़िन्दगी पे रहम
है उस जवाँ की तर्ज़े-मुलाक़ात9 बेतरह
'''शब्दार्थ
1. वक़्त, 2. पुरस्कार, 3. प्रेम के कर्मों की, 4. बदला (सज़ा), 5. बहेलिया, 6. संदेशवाहक, 7. बाल, 8. कंघा, 9. मुलाक़ात का ढंग
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