भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुझ बिन बहुत ही कटती है औक़ात बेतरह / सौदा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुझ बिन बहुत ही कटती है औक़ात<ref>समय
</ref> बेतरह
जूँ-तूँ के दिन तो गुज़रे है, पर रात बेतरह

होती है एक तरह से हर काम की जज़ा<ref>पुरस्कार
</ref>
आमाले-इश्क़<ref>. प्रेम के कर्मों की</ref> की है मकाफ़ात<ref>बदला(सज़ा)</ref> बेतरह

बुलबुल, कर इस चमन में समझकर टुक आशियाँ
सैयाद<ref>बहेलिया</ref> लग रहा है तिरी घात बेतरह

पूछा पयामबर<ref>संदेशवाहक</ref> से जो मैं यार का जवाब
कहने लगा ख़मोश कि है बात बेतरह

मिलने न देगा हमसे तुझे एक दम रक़ीब
पीछे लगा फिरे है वो बद्ज़ात की तरह

कोई ही मू<ref>बाल
</ref> रहे तो रहे इसमें शैख़ जी
दाढ़ी पड़ी है शाना<ref> काँधे</ref> के अब हाथ बेतरह

'सौदा' न मिल, कर अपनी तू अब ज़िन्दगी पे रहम
है उस जवाँ की तर्ज़े-मुलाक़ात<ref>मुलाक़ात का ढंग</ref> बेतरह

शब्दार्थ
<references/>