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{{KKRachna
|रचनाकार=अनूप सेठी
}}
<poem>
जब बहुत तेज़ रोशनियाँ होती हैं
और बहुत सारे लोग रोज़ मिलने वाले
तो दूसरी तरफ पँहुचना समुद्र तट पर
किसी दूसरे शहर में पँहुचने जैसा होता है
जहां सिर उठाने से पहले
विचार धक्का मार के निकल जाता है

आप अवाक क्यों खड़े हैं
मसरूफ क्यों नहीं हैं

कभी-कभी शहर इतना मुक्त कर देता है कि
चङ्ढी पहन के घूम आओ
वो दोस्तों को गुलदस्तों में बदल देगा
आप नाचते हुए काट देंगे सारी रात चौपाटी पर

सँबंधी जबड़े कसके क्यों खड़े रहते हैं
स्वागत के लिए
सारी दुनिया से बिंदास दोस्ती कब होगी।
(1990)
</poem>
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