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19:03, 22 जनवरी 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अनूप सेठी
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घड़ी आज भी बजा रही है साढ़े चार
यूँ शायद बज चुके हैं पौने पाँच
दफ्तरों में हर कोई व्यस्त है अपने लद्धड़पन के बावजूद
बीसियों बरसों से
खड़े खड़े कुढ़ने तक की नहीं है सोहबत
घरों में बहुत हैं झुनझुने
आटे दाल के भरे अधभरे बजबजाते कनस्तर
केलैण्डर से उड़नछू हो रहे दिन महीने बरस
मगन होके हगने तक की नहीं है मोहलत
लगेंगे चश्मे होंगे भर्ती अस्पतालों में सब एक दिन
लोकल ट्रेनों की भीड़ में एकांत है सुलभ
पसीने से चिपचिपाता
बुक्का फाड़कर रोने भर की जगह नहीं है बस।
</poem>