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{{KKRachna
|रचनाकार = शमशेर बहादुर सिंह
}}

<poem>
हार-हार
समझा मैं तुमको
अपने पार।

हँसी बन
खिली सांझ –
बुझने को ही।

एक हाय-हाय की रात
बीती न थी
कि दिन हुआ।

हार-हार...

(1941)
</poem>
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