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'''राग नट'''
 
खेलन चलिये आनँदकन्द |
सखा प्रिय नृपद्वार ठाढ़े बिपुल बालक-बृन्द ||
तृषित तुम्हरे दरस कारन चतुर चातक-दास |
बपुष-बारिद बरषि छबि-जल हरहु लोचन-प्यास ||
बन्धु-बचन बिनीत सुनि उठे मनहुँ केहरि-बाल |
ललित लघु सर-चाप कर, उर-नयन-बाहु बिसाल ||
चलत पद प्रतिबिम्ब राजत अजिर सुखमा-पुञ्ज |
प्रेमबस प्रति चरन महि मानो देति आसन कञ्ज ||
निरखि परम बिचित्र सोभा चकित चितवहिं मात |
हरष-बिबस न जात कहि, "निज भवन बिहरहु, तात ||
देखि तुलसीदास प्रभु-छबि रहे सब पल रोकि |
थकित निकर चकोर मानहुँ सरद इंदु बिलोकि ||
 
बिहरत अवध-बीथिन राम |
सङ्ग अनुज अनेक सिसु, नव-नील-नीरद स्याम ||
तरुन अरुन-सरोज-पद बनी कनकमय पदत्रान |
पीत-पट कटि तून बर, कर ललित लघु धनु-बान ||
लोचननिको लहत फल छबि निरखि पुर-नर-नारि |
बसत तुलसीदास उर अवधेसके सुत चारि ||
 
जैसे राम ललित तैसे लोने लषन लालु |
तैसेई भरत सील-सुखमा-सनेह-निधि, तैसेई सुभग सँग सत्रुसालु ||
धरे धनु-सर कर, कसे कटि तरकसी, पीरे पट ओढ़े चले चारु चालु |
अंग-अंग भूषन जरायके जगमगत, हरत जनके जीको तिमिरजालु ||
खेलत चौहट घाट बीथी बाटिकनि प्रभु सिव सुप्रेम-मानस-महालु |
सोभा-दान दै दै सनमानत जाचकजन करत लोक-लोचन निहालु ||
रावन-दुरित-दुख दलैं सुर कहैं आजु "अवध सकल सुखको सुकालु|
तुलसी सराहैं सिद्ध सुकृत कौसल्याजूके, भूरि भाग-भाजन भुवालु ||
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