भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खेलन चलिये आनँदकन्द / तुलसीदास
Kavita Kosh से
राग नट
खेलन चलिये आनँदकन्द |
सखा प्रिय नृपद्वार ठाढ़े बिपुल बालक-बृन्द ||
तृषित तुम्हरे दरस कारन चतुर चातक-दास |
बपुष-बारिद बरषि छबि-जल हरहु लोचन-प्यास ||
बन्धु-बचन बिनीत सुनि उठे मनहुँ केहरि-बाल |
ललित लघु सर-चाप कर, उर-नयन-बाहु बिसाल ||
चलत पद प्रतिबिम्ब राजत अजिर सुखमा-पुञ्ज |
प्रेमबस प्रति चरन महि मानो देति आसन कञ्ज ||
निरखि परम बिचित्र सोभा चकित चितवहिं मात |
हरष-बिबस न जात कहि, "निज भवन बिहरहु, तात ||
देखि तुलसीदास प्रभु-छबि रहे सब पल रोकि |
थकित निकर चकोर मानहुँ सरद इंदु बिलोकि ||