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|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
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<poem>
उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा —

जन-जन के संघर्षों में विकसित
:परिणत होते नूतन मन का ।
::वह अन्तस्तल . . . . . .
संघर्ष-विवेकों की प्रतिभा

अनुभव-गरिमाओं की आभा

वह क्षमा-दया-करुणा की नीरोज्ज्वल शोभा

सौ सहानुभूतियों की गरमी,

प्राणों में कोई बैठा है कबीर मर्मी

ये पहलू-पांखें, पंखुरियाँ स्वर्णोज्जवल

नूतन नैतिकता का सहस्र-दल खिलता है,

मानव-व्यक्तित्व-सरोवर में !!

उस स्वर्ण-सरोवर का जल
:चमक रहा देखो
उस दूर क्षितिज-रेखा पर वह झिलमिला रहा ।

ताना-बाना
:मानव दिगंत किरनों का
:मैंने तुममें, जन-जन में जिस दिन पहचाना
उस दिन, उस क्षण

नीले नभ का सूरज हँसते-हँसते उतरा
:मेरे आंगन,
प्रतिपल अधिकाधिक उज्ज्वल हो
:मधुशील चन्द्र
::था प्रस्तुत यों
मेरे सम्मुख आया मानो

मेरा ही मन ।

वे कहने लगे कि चले आ रहे तारागण

इस बैठक में, इस कमरे में, इस आंगन में —

जब कह ही रहा था कि कब इन्हें बुलाया है मैंने,

तब अकस्मात् आये मेरे जन, मित्र, स्नेह के सम्बन्धन

नक्षत्र-मंडलों में से तारागण उतरे

मैदान, धूप, झरने, नदियाँ सम्मुख आयीं,

मानो जन-जन के जीवन-गुण के रंगों में

है फैल चली मेरी दुनिया की
:या कि तुम्हारी ही झाँईं ।
तुम क्या जानो मुझको कितना
::अभिमान हुआ
सन्दर्भ हटा, व्यक्ति का कहीं उल्लेख न कर,

जब भव्य तुम्हारा संवेदन

सबके सम्मुख रख सका, तभी

अनुभवी ज्ञान-संवेदन की दुर्दम पीड़ा
::झलमला उठी !!
</poem>
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