भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 5 / गजानन माधव मुक्तिबोध

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा —
जन-जन के संघर्षों में विकसित
परिणत होते नूतन मन का ।
वह अन्तस्तल . . . . . .
संघर्ष-विवेकों की प्रतिभा
अनुभव-गरिमाओं की आभा
वह क्षमा-दया-करुणा की नीरोज्ज्वल शोभा
सौ सहानुभूतियों की गरमी,
प्राणों में कोई बैठा है कबीर मर्मी
ये पहलू-पांखें, पंखुरियाँ स्वर्णोज्जवल
नूतन नैतिकता का सहस्र-दल खिलता है,
मानव-व्यक्तित्व-सरोवर में !!
उस स्वर्ण-सरोवर का जल
चमक रहा देखो
उस दूर क्षितिज-रेखा पर वह झिलमिला रहा ।

ताना-बाना
मानव दिगंत किरनों का
मैंने तुममें, जन-जन में जिस दिन पहचाना
उस दिन, उस क्षण
नीले नभ का सूरज हँसते-हँसते उतरा
मेरे आंगन,
प्रतिपल अधिकाधिक उज्ज्वल हो
मधुशील चन्द्र
था प्रस्तुत यों
मेरे सम्मुख आया मानो
मेरा ही मन ।
वे कहने लगे कि चले आ रहे तारागण
इस बैठक में, इस कमरे में, इस आंगन में —
जब कह ही रहा था कि कब इन्हें बुलाया है मैंने,
तब अकस्मात् आये मेरे जन, मित्र, स्नेह के सम्बन्धन
नक्षत्र-मंडलों में से तारागण उतरे
मैदान, धूप, झरने, नदियाँ सम्मुख आयीं,
मानो जन-जन के जीवन-गुण के रंगों में
है फैल चली मेरी दुनिया की
या कि तुम्हारी ही झाँईं ।
तुम क्या जानो मुझको कितना
अभिमान हुआ
सन्दर्भ हटा, व्यक्ति का कहीं उल्लेख न कर,
जब भव्य तुम्हारा संवेदन
सबके सम्मुख रख सका, तभी
अनुभवी ज्ञान-संवेदन की दुर्दम पीड़ा
झलमला उठी !!