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{{KKRachna
|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
|संग्रह = अष्टावक्र गीता / मृदुल कीर्ति
}}
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'''जनक उवाचः'''
विषय सेवी प्रभाव से और शून्य चित्त स्वभाव से
सुप्त हैं,जाग्रत तथापि, विरत विश्व प्रभाव से.-----१

पूर्नात्मदर्शी अब मेरी विषयानुरक्ति शून्य है,
ज्ञान धन और शास्त्र मित्रों में भी रूचि अति न्यून है.------२

अयआत्मा ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही सर्वज्ञ है,
मुझे मोक्ष की चिंता नहीं, सर्वग्य जब से विज्ञ है.------३

संकल्प शून्य विकल्प से मन, बाह्य पर उन्मत्त है,
यह दशा जाने वही, जो स्वयम ज्ञान प्रवत्त है.--------४
</poem>