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00:33, 26 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुधा ओम ढींगरा
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<poem>
सुबह भिंची-भिंची आँखों से
खिड़कियों के पर्दे हटाते हुए
बाहर देख
अवाक् रह गई !
शिल्पकार ने
पूरे बगीचे में
पारदर्शी काँच के वृक्ष
औ' झाड़ियां जड़ दी थीं !
रिमझिम फुहार
सारी रात गाती रही
तापमान गिरने से
बर्फ बन गुनगुनाती रही !
तभी शायद
पाइन , टीक औ' पाम के
वृक्षों को शिल्पी घड़ता रहा
रूप नया देता रहा.
ऐसा लगा
काँच बगीचा है मेरा
एक -एक पत्ती
मैग्नोलिया की एक -एक पंखुड़ी
कुशल शिल्पी की कृतियाँ हैं !
काँच की घास
निहार तो सकतीं हूँ .....
पाँव नहीं रख सकती .......
</poem>