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{{KKRachna
|रचनाकार=शाद अज़ीमाबादी
}}
<poem>

हमसे सहरा-गर्द को छोड़ ऐ ग़ुबार!
तू कहाँ तक पीछे-पीछे आएगा॥

खो गए हैं दोनों जानिब के सिरे।
कौन दिल की गुत्थियाँ सुलझाएगा॥

मैं कहाँ, वाइज़ कहाँ, तौबा करो!
जो न समझा खु़द वोह क्या समझाएगा॥

बाग़ में क्या जाऊँ, सर पर है ख़िज़ाँ।
गुल का उतरा मुँह न देखा जाएगा।

</poem>