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{{KKRachna
|रचनाकार=सीमाब अकबराबादी
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<poem>

यूँ उठा करती है सावन की घटा।
जैसे उठती हो जवानी झूमके॥

जिस जगह से ले चला था राहबर।
हम वहीं फिर आ गए हैं घूमके॥

आ गया ‘सीमाब’ जाने क्या ख़याल?
ताक़ में रख दी सुराही चूमके॥

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