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10:24, 5 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= बशीर बद्र
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<poem>
वो चांदनी का बदन खुशबूओं का साया है
बहुत अजी़ज हमें है मगर पराया है
उतर भी आओ अभी आसमान के जीनो से
तुम्हे खुदा ने हमारे लिए बनाया है
उसे किसी कि मोहब्बत का ऐतबार नहीं
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है
महक रही है जमीं चांदनी के फूलों से
खुदा किसी की मोहब्बत पे मुस्कुराया है
कहाँ से आई ये खुशबू घर की खुशबू है
इस अजनबी के अँधेरे में कौन आया है
तमाम उम्र मेरा दम इसी धुएँ में घुटा
वो एक चिराग था मैंने उसे बुझाया है
</poem>