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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=सिंदूरी साँझ और ख़ामोश आदमी / सुदर्शन वशिष्ठ
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<poem>बिना बाड़े के रहती हैं
गद्दी की भेड़ें
सौ दो सौ तीन सौ
एक साथ
कोई बाड़, नहीं बाड़ा नहीं
सभी बैठतीं अंदर अंदर होतीं
एक दूसरे से सट कर
बाहर की ओर मुँह करना
किसी को गवारा नहीं।भा


गद्दी बैठता मजे से दूर
खाना पकाता
बाँसुरी बजाता।

जो रहतीं बाड़े में
खूँटे से बन्धी
चारा छोड़
भागना चाहती बाहर।
</poem>
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