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{{KKRachna
|रचनाकार=सफ़ी लखनवी
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नज़र हुस्न-आश्ना ठहरी वो ख़िलवत हो कि जलवत हो।
जब आँखें बन्द कीं तसवीरे-जानाँ देख लेते हैं।

वो खुद सर से क़दम तक डूब जाते हैं पसीने में।
मेरी महफ़िल में जो उनको, पशेमां देख लेते हैं।

‘सफ़ी’ रहते हैं जानो-दिल फ़िदा करने पै आमादा।
मगर उस वक़्त जब इन्साँ को इन्साँ को देख लेते हैं।
</poem>