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लुत्फ़ बाक़ी रहा न जीने में
सोरहे सो रहे लाख-काख लाख अरमाँ हैं
दिले -पामाल के दफ़ीने में
मौत रोती है ऐसे जीने में
ज़ेबे-इन्सानियत है हैं वो इन्साँ
दर्दे-इन्साँ है जिनके सीने में
लुत्फ़ यारों के कुर्ब क़ुर्ब में है ‘शरर’
कुछ पिलाने में है न पीने में
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