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दर्द कम हो रहा है सीने में / परमानन्द शर्मा 'शरर'
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दर्द कम हो रहा है सीने में
लुत्फ़ बाक़ी रहा न जीने में
सो रहे लाख-लाख अरमाँ हैं
दिले -पामाल के दफ़ीने में
कुछ शिकायत नहीं समन्दर से
हो गया ग़र्क़ मैं सफ़ीने में
हाय उन मय-फ़रोश आँखों ने
कर दिया ताक़ मुझको पीने में
अब्रे-कमबख़्त घिर के आता है
तौबा कर लूँ मैं जिस महीने में
ज़िन्दगी है तो ग़म भी साथ रहें
फ़र्क़ आए न इस क़रीने में
जो फ़क़त अपने वास्ते ही जिये
मौत रोती है ऐसे जीने में
ज़ेबे-इन्सानियत हैं वो इन्साँ
दर्दे-इन्साँ है जिनके सीने में
लुत्फ़ यारों के क़ुर्ब में है ‘शरर’
कुछ पिलाने में है न पीने में