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12:27, 12 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अवतार एनगिल
|संग्रह=अन्धे कहार / अवतार एनगिल
}}
<poem>अभी-अभी
सागर की कोख़ से
उगी एक अनाम किरण
उसके माथे की भीतरी कोठरी में
फैल गई है।
क्या कारण है
कि व्यापारी होकर भी
सिंदबाद व्यापारी नहीं ?
आखिर क्यों
हर बार वह
सौदागरों के समूह से
अलग हो जाता है ?
मगर क्यों फिर
यात्राओं की लम्बी यातनाओं के बाद भी
नियति उसे,उसी जहाज़ के
उसी वर्ग से जोड़ जाती है
जिसके गिद्ध
सदैव मांस के लोथड़ों पर झपटते हैं
और मांस के साथ चिपके बेशकीमती हीरे
अजगरों की घाटी की घुटन से निकलकर
एक बार फिर
तिजोरियों के अंधेरों में
छिप जाने के लिए अपनी असफल यात्रा शुरू करते हैं।
</poem>