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दीप / महादेवी वर्मा
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14:37, 22 सितम्बर 2009
वियोगी मेरे बुझते दीप ?
अनोखे से नेही के त्याग
!
निराले पीड़ा के संसार
!
कहाँ होते हो
अंतर्ध्यान
अन्तर्धान
लुटा अपना सोने सा प्यार
?
कभी
आएगा
आयेगा
ध्यान अतीत
-
तुम्हें क्या
निर्माणोन्मुख
निर्वाणोन्मुख
दीप
?
</poem>
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