दीप / महादेवी वर्मा
मूक कर के मानस का ताप
सुलाकर वह सारा उन्माद,
जलाना प्राणों को चुपचाप
छिपाये रोता अन्तर्नाद ;
कहाँ सीखी यह अद्भुत प्रीति?
मुग्ध हे मेरे छोटे दीप !
चुराया अन्तस्थल में भेद
नहीं तुमको वाणी की चाह,
भस्म होते जाते हैं प्राण
नहीं मुख पर आती है आह ;
मौन में सोता है संगीत-
लजीले मेरे छोटे दीप !
क्षार होता जाता है गात
वेदनाओं का होता अन्त,
किन्तु करते रहते हो मौन
प्रतीक्षा का आलोकित पन्थ ;
सिखा दो ना नेही की रीति-
अनोखे मेरे नेही दीप !
पड़ी है पीड़ा संज्ञाहीन
साधना में डूबा उद्गार,
ज्वाल में बैठा हो निस्तब्ध
स्वर्ण बनता जाता है प्यार ;
चिता है तेरी प्यारी मीत-
वियोगी मेरे बुझते दीप ?
अनोखे से नेही के त्याग!
निराले पीड़ा के संसार!
कहाँ होते हो अन्तर्धान
लुटा अपना सोने सा प्यार?
कभी आयेगा ध्यान अतीत-
तुम्हें क्या निर्वाणोन्मुख दीप?