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संक्रांति / धर्मवीर भारती

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{{KKRachna
|रचनाकार=धर्मवीर भारती
}} <poem>सूनी सड़कों पर ये आवारा पाँव
माथे पर टूटे नक्षत्रों की छाँव

कब तक
आखिर कब तक?

चिंतित माथे पर ये अस्तव्यस्त बाल
उत्तर, पच्छिम, पूरब, दक्खिन-दीवाल

कब तक
आख़िर कब तक?

लड़ने वाली मुट्ठी जेबों में बन्द
नया दौर लाने में असफल हर छंद

कब तक?
लेकिन कब तक?</poem>
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