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रात की बात / विश्वरंजन

592 bytes added, 21:59, 2 नवम्बर 2009
बहुत अंदर छुपा पड़ा हादसों का आंतकएक जादू-सा जग पड़ता है सहसाऔर रात की परछाईयों के साथ करता है नृत्यएक सूखी बच्ची फिर से रोती हैएक नंगी और और सिकुड़ जाती है पुलिस के नीचेमंगरू का बूढ़ा बाप चीखता है औरखाँसता है एक तपेदिक खाँसी
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