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रात की बात / विश्वरंजन
Kavita Kosh से
बहुत अंदर छुपा पड़ा हादसों का आंतक
एक जादू-सा जग पड़ता है सहसा
और रात की परछाईयों के साथ करता है नृत्य
एक सूखी बच्ची फिर से रोती है
एक नंगी और और सिकुड़ जाती है पुलिस के नीचे
मंगरू का बूढ़ा बाप चीखता है और
खाँसता है एक तपेदिक खाँसी