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16:24, 14 नवम्बर 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र
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तुम क्यों नाथ सुनत नहिं मेरी।
हमसे पतित अनेकन तारे, पावन है बिरुदावलि तेरी।
दीनानाथ दयाल जगतपति, सुनिये बिनती दीनहु केरी।
’हरीचंद’ को सरनहिं राखौ, अब तौ नाथ करहु मत देरी॥
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