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01:52, 25 नवम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|संग्रह=
}}<poem>तुम्हारी पीठ पर से कुछ अणु
मेरी हस्त – रेखाओं में बस गये हैं
जहां भी जाता हूं
लोगों से हाथ मिलाता हूं
उनके शरीर में कुछ तुम आ जाती हो
और वे सुन्दर लगने लगते हैं अचानक
कम नहीं होती मुझमें तुम
जहां कहीं से भी लौटता हूं
तुम होती हो हथेलियों पर
सड़कों से नाचते – नाचते लौटता हूं घर
दरवाजा खोलते ही खिलखिलाता हंस उठता है
दीवार पर पसरा भगतसिंह
</poem>