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सरोकार / चंद्र रेखा ढडवाल
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09:51, 13 दिसम्बर 2009
प्रार्थनाएँ पर नहीं रुकतीं
देव-प्रतिमाएँ सजीव हो-हो नहीं देतीं श्राप
सुसंस्कृति अजगर के विशाल
मिख
मुख
-सी
खुल जाती सबकुछ के स्वीकार के लिए
जीवों के योगक्षेम नि:शब्द वहन करती
तो बरसों पुराने अनाम किसी शिल्पी की
कलात्मक कांस्य-प्रतिमा पर कभी.
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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