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बादल / अलेक्सान्दर पूश्किन
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07:42, 26 दिसम्बर 2009
बस काफ़ी है, अब तुम जाओ! वह क्षण बीत गया
धरती सरस हुई,
झंझ्हा
झंझा
का, अब बल रीत गया,
और पवन जो मन्द-मन्द, तरू, पत्ते सहलाए
सान्त
शान्त
गगन से तुझे उड़ा निश्चय ही ले जाए।
'''रचनाकाल :
1823
1835
'''
</poem>
अनिल जनविजय
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