नील वारि को अरुण करो,
::चरणों का राग बहाओ तो।
:::(७८)
दौड़-दौड़ तट से टकरातीं
::लहरें लघु रो-रो सजनी!
इन्हें देख लेने दो जी भर,
::मुख न अभी मोड़ो सजनी!
आज प्रथम संध्या सावन की,
::इतनी भी तो करो दया,
कागज की नौका में धीरे
::एक दीप छोड़ो सजनी!
:::(७९)
प्रकृति अचेतन दिव्य रूप का
::स्वागत उचित सजा न सकी,
ऊषा का पट अरुण छीन
::तेरे पथ बीच बिछा न सकी।
रज न सकी बन कनक - रेणु,
::कंटक को कोमलता न मिली,
पग - पग पर तेरे आगे वसुधा
::मृदु कुसुम खिला न सकी।
:::(८०)
अब न देख पाता कुछ भी यह
::भक्त विकल, आतुर तेरा,
आठों पहर झूलता रहता
::दृग में श्याम चिकुर तेरा।
अर्थ ढूँढ़ते जो पद में,
::मैं क्या उनको निर्देश करूँ?
चरण-चरण में एक नाद,
::बजता केवल नूपुर तेरा।
:::(८१)
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