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द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - १०

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(७५)
पहली सीख यही जीवन की,
अपने को आबाद करो,
बस न सके दिल की बस्ती, तो
आग लगा बरबाद करो।
खिल पायें, तो कुसुम खिलाओ,
नहीं? करो पतझाड़ इसे,
या तो बाँधो हृदय फूल से,
याकि इसे आजाद करो।

(७६)
मैं न जानता था अबतक,
यौवन का गरम लहू क्या है;
मैं पीता क्या निर्निमेष?
दृग में भर लाती तू क्या है?
तेरी याद, ध्यान में तेरे
विरह-निशा कटती सुख से,
हँसी-हँसी में किन्तु, हाय,
दृग से पड़ता यह चू क्या है?

(७७)
उमड़ चली यमुना प्राणों की,
हेम-कुम्भ भर जाओ तो;
भूले भी आ कभी तीर पर
नूपुर सजनि! बजाओ तो।
तनिक ठहर तट से झुक देखो,
मुझ में किसका बिम्ब पड़ा?
नील वारि को अरुण करो,
चरणों का राग बहाओ तो।

(७८)
दौड़-दौड़ तट से टकरातीं
लहरें लघु रो-रो सजनी!
इन्हें देख लेने दो जी भर,
मुख न अभी मोड़ो सजनी!
आज प्रथम संध्या सावन की,
इतनी भी तो करो दया,
कागज की नौका में धीरे
एक दीप छोड़ो सजनी!

(७९)
प्रकृति अचेतन दिव्य रूप का
स्वागत उचित सजा न सकी,
ऊषा का पट अरुण छीन
तेरे पथ बीच बिछा न सकी।
रज न सकी बन कनक - रेणु,
कंटक को कोमलता न मिली,
पग - पग पर तेरे आगे वसुधा
मृदु कुसुम खिला न सकी।

(८०)
अब न देख पाता कुछ भी यह
भक्त विकल, आतुर तेरा,
आठों पहर झूलता रहता
दृग में श्याम चिकुर तेरा।
अर्थ ढूँढ़ते जो पद में,
मैं क्या उनको निर्देश करूँ?
चरण-चरण में एक नाद,
बजता केवल नूपुर तेरा।

(८१)
पूजा का यह कनक - दीप
खँडहर में आन जलाया क्यों?
रेगिस्तान हृदय था मेरा,
पाटल - कुसुम खिलाया क्यों?
मैं अन्तिम सुख खोज रहा था
तप्त बालुओं में गिरकर।
बुला रहा था सर्वनाश को
यह पीयूष पिलाया क्यों?

(८२)
तुझे ज्ञात जिसके हित इतना
मचा रही कल - रोर, सखी!
खड़ा पान्थ वह उस पथ पर
जाता जो मरघट ओर, सखी!
यह विस्मय! जंजीर तोड़
कल था जिसने वैराग्य लिया,
आज उसी के लिए हुआ
फूलों का पाश कठोर, सखी!

(८३)
बोल, दाह की कोयल मेरी,
बोल दहकती डारों पर,
अर्द्ध-दग्ध तरु की फुनगी पर,
निर्जल-सरित-कगारों पर।
अमृत - मन्त्र का पाठ कभी
मायाविनि! मृषा नहीं होता,
उगी जा रहीं नई कोंपलें
तेरी मधुर पुकारों पर।

(८४)
दृग में सरल ज्योति पावन,
वाणी में अमृत-सरस क्या है?
ताप-बिमोचन कुछ अमोघ
गुणमय यह मधुर परस क्या है?
धूलि-रचित प्रतिमे! तुम भी तो
मर्त्यलोक की एक कली,
ढूँढ़ रहा फिर यहाँ विरम
मेरा मन चकित, विवश क्या है?

(८५)
चिर-जाग्रत वह शिखा, जला तू
गई जिसे मंगल-क्षण में;
नहीं भूलती कभी, कौंध
जो विद्युत समा गई घन में।
बल समेट यदि कभी देवता
के चरणों में ध्यान लगा;
चिकुर - जाल से घिरा चन्द्रमुख
सहसा घूम गया मन में।

(८६)
अमित बार देखी है मैंने
चरम - रूप की वह रेखा,
सच है, बार - बार देखा
विधि का वह अनुपमेय लेखा।
जी - भर देख न सका कभी,
फिर इन्द्रजाल दिखलाओ तो,
बहुत बार देखा, पर लगता
स्यात्, एक दिन ही देखा।

(८७)
हेर थका तू भेद, गगन पर
क्यों उडु - राशि चमकती है?
देख रहा मैं खड़ा, मग्न
आँखों की तृषा न छकती है।
मैं प्रेमी, तू ज्ञान - विशारद,
मुझमें, तुझमें भेद यही,
हृदय देखता उसे, तर्क से
बुद्धि न जिसे समझती है।

(८८)
उसे पूछ विस्मृति का सुख क्या,
लगा घाव गम्भीर जिसे,
जग से दूर हटा ले बैठी
दिल की प्यारी पीर जिसे।
जागरूक ज्ञानी बनकर जो
भेद नहीं तू जान सका,
पूछ, बतायेगा, फूलों की
बाँध चुकी जंजीर जिसे।