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{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रमा द्विवेदी}}


स्त्री के मन को इस देश में,<br>
कोई न समझ पाया है?<br>
कितना गहरा दर्द,तूफ़ान समेटे है,<br>
अपने गर्भ में,मस्तिष्क में,<br>
उसकी उर्वर जमीन में,<br>
बीज बोते समय<br>
तुमने न उसे खाद दी ,<br>
न जल से सींचा,<br>
अपने रक्त की हर बूँद से,<br>
उसने उसे पोसा,<br>
असंख्य रातें जगी,<br>
दुर्धर पीड़ा सहकर,<br>
उसने तुम्हें जन्मा,<br>
किन्तु उसे ही कोई न समझ पाया?<br>
जिसने मानव को बनाया।<br>
बीज काफी नहीं है,<br>
गर भूमि उर्वरा न हो,<br>
तो बीज व्यर्थ चला जाता है,<br>
उसके तन-मन-ममत्व की आहुति से,<br>
कहीं एक शिशु जन्मता है,<br>
पोषती है अपने दुग्ध से,<br>
असंख्य रातें जागकर,<br>
अनेक कष्ट सहकर,तब-<br>
उस शिशु को आदमी बनाती है,<br>
फिर क्यों समाज में,<br>
उसे ही नकारा जाता है?<br>
रसोई और बिस्तर तक ही,<br>
उसके अस्तित्व को सीमित कर,<br>
उसे कैद कर दिया जाता है।<br>
खुली हवा में साँस लेने का,<br>
उसे अधिकार नहीं,<br>
आसमान का एक छोटा टुकड़ा भी,<br>
उसके नाम नहीं । क्यों?<br>
यह पुरुष, जिसकी हर साँस<br>
उसकी ही दी हुई है,<br>
वही उसकी अस्मिता से <br>
हर पल खेलता है,<br>
कभी दहेज की बलि चढ़ा कर?<br>
कभी बलात्कार करके?<br>
कभी बाजार में बेंच कर?<br>
कभी भ्रूण-हत्या करके?<br>
क्या हमारे देश के पुरुष ,<br>
इतने कृतघ्न हो गए हैं?<br>
कि अपने समाज की स्त्रियों की,<br>
रक्षा नहीं कर सकते।<br>
जब रक्षक ही भक्षक बन जाए ,<br>
तब रक्षा का दूसरा उपाय ही क्या है?<br>
जब स्थिति इतनी विकट हो ,<br>
तब नारी को स्वयं ही ,<br>
रणचंडी बनना होगा,<br>
येन-केन-प्रकारेण उसे स्वयं ही,<br>
अपनी अस्मिता की रक्षा करनी होगी।<br>
क्योंकि इस देश में हिजड़ों की,<br>
संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है,<br>
और हिजड़ों की कोई पहचान नहीं होती।<br>
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