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स्वयं ही रणचंडी बनना होगा/ रमा द्विवेदी

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स्त्री के मन को इस देश में,
कोई न समझ पाया है?
कितना गहरा दर्द,तूफ़ान समेटे है,
अपने गर्भ में,मस्तिष्क में,
उसकी उर्वर जमीन में,
बीज बोते समय
तुमने न उसे खाद दी ,
न जल से सींचा,
अपने रक्त की हर बूँद से,
उसने उसे पोसा,
असंख्य रातें जगी,
दुर्धर पीड़ा सहकर,
उसने तुम्हें जन्मा,
किन्तु उसे ही कोई न समझ पाया?
जिसने मानव को बनाया।
बीज काफी नहीं है,
गर भूमि उर्वरा न हो,
तो बीज व्यर्थ चला जाता है,
उसके तन-मन-ममत्व की आहुति से,
कहीं एक शिशु जन्मता है,
पोषती है अपने दुग्ध से,
असंख्य रातें जागकर,
अनेक कष्ट सहकर,तब-
उस शिशु को आदमी बनाती है,
फिर क्यों समाज में,
उसे ही नकारा जाता है?
रसोई और बिस्तर तक ही,
उसके अस्तित्व को सीमित कर,
उसे कैद कर दिया जाता है।
खुली हवा में साँस लेने का,
उसे अधिकार नहीं,
आसमान का एक छोटा टुकड़ा भी,
उसके नाम नहीं । क्यों?
यह पुरुष, जिसकी हर साँस
उसकी ही दी हुई है,
वही उसकी अस्मिता से
हर पल खेलता है,
कभी दहेज की बलि चढ़ा कर?
कभी बलात्कार करके?
कभी बाजार में बेंच कर?
कभी भ्रूण-हत्या करके?
क्या हमारे देश के पुरुष ,
इतने कृतघ्न हो गए हैं?
कि अपने समाज की स्त्रियों की,
रक्षा नहीं कर सकते।
जब रक्षक ही भक्षक बन जाए ,
तब रक्षा का दूसरा उपाय ही क्या है?
जब स्थिति इतनी विकट हो ,
तब नारी को स्वयं ही ,
रणचंडी बनना होगा,
येन-केन-प्रकारेण उसे स्वयं ही,
अपनी अस्मिता की रक्षा करनी होगी।
क्योंकि इस देश में हिजड़ों की,
संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है,
और हिजड़ों की कोई पहचान नहीं होती।