जब आदमी
अपनी आदिमता में जीते होते हैं
वह चींखता चींख़ता है :::भयानक
(तो)
रात और स्याह हो जाती है,
चादर को अपने चारों ओर
और कसकर लपेट लेता हूं
और स्वस्थ सांस साँस लेने को
मुँह चादर से बाहर निकालने का
साहस नहीं होता
वह क्यों चींखता चींख़ता है
यह सवाल
बहरहाल
मैं
रात के अंधेरे अन्धेरे में नहीं पूछता दिन के उजाले में सोचता हूं.हूँ।
फ़िलहाल
'''रचनाकाल:''' ०२/: 02 दिसम्बर/१९८८1988
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