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10:05, 1 मार्च 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रेम नारायण 'पंकिल'
|संग्रह=
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[[Category:कविता]]
<poem>
प्राण-नाथ मत रूठो करूणा-दृग खोलो।
इतने दिन मौन रहे अब तो कुछ बोलो।।
देख लो बुझी कब से नेह-दीप बाती।
प्रभु-विरहित व्यर्थ श्वांस आती है जाती।
मेरे उर प्रांगण में मंद-मंद डोलो-
प्राणनाथ मत रूठो 0..............................।।1।।
रिक्त पड़ी है कब से मेरी उर शैय्या।
सुखासीन हो जावो हे हृदय-रमैया।
इस कृपण के तंदुल की पोटली टटोलो-
प्राणनाथ मत रूठो 0..............................।।2।।
मैं अति समर्थ कठिन पाप की पहेली।
दुर्गुण-बोझिल सिर पर फेर दो हथेली।
सबके सब कुछ हो कुछ मेरे भी हो लो-
प्राणनाथ मत रूठो 0..............................।।3।।
सुधि-संबल दे कर लो अपना अनुगामी।
दिग भ्रमित बिहँग को दो चरण-नीड़ स्वामी।
‘पंकिल’ उर बीच परम प्रेम-रंग धोलो-
प्राणनाथ मत रूठो 0..............................।।4।।
</poem>