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{{KKRachna
|रचनाकार= तुफ़ैल चतुर्वेदी
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<poem>ग़ज़ल के शेरों की क़ीमत हँसी से माँगते हैं
वो खूँबहा१ भी मेरा अब मुझी से माँगते हैं

इसीलिये तो कुचलती है रात-दिन दुनिया
हम अपना हक़ भी बड़ी आजिज़ी२ से माँगते हैं

इन्हें सिखाओ न आदाबे-जिन्दगी यारो
ये मगफ़रत३ भी इसी शायरी से माँगते हैं

बहुत संभल के फ़क़ीरों पे तव्सरा४ करना
ये लोग पानी भी सूखी नदी से माँगते हैं

ये तेरी मर्ज़ी है हमसे न मिल, न दे दरशन
मगर ये सोच के हम तुझ सख़ी५ से माँगते हैं

कभी ज़माना था उसकी तलब में रहते थे
और अब ये हाल है खुद को उसी से माँगते हैं


१- क़ातिल से क़त्ल होने वाले के परिजनों को मिलनेवाला आर्थिक दंड २-विनम्र भाव ३- मोक्ष ४-चर्चा ५- दानी,उदार
<poem>
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