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ग़ज़ल के शेरों की क़ीमत हँसी से माँगते हैं / तुफ़ैल चतुर्वेदी


ग़ज़ल के शेरों की क़ीमत हँसी से माँगते हैं
वो खूँबहा<ref> क़ातिल से क़त्ल होने वाले के परिजनों को मिलनेवाला आर्थिक दंड </ref> भी मेरा अब मुझी से माँगते हैं

इसीलिये तो कुचलती है रात-दिन दुनिया
हम अपना हक़ भी बड़ी आजिज़ी<ref>विनम्र भाव </ref> से माँगते हैं

इन्हें सिखाओ न आदाबे-जिन्दगी यारो
ये मगफ़रत<ref>मोक्ष </ref>भी इसी शायरी से माँगते हैं

बहुत संभल के फ़क़ीरों पे तब्सरा<ref>चर्चा</ref> करना
ये लोग पानी भी सूखी नदी से माँगते हैं

ये तेरी मर्ज़ी है हमसे न मिल, न दे दरशन
मगर ये सोच के हम तुझ सख़ी<ref>दानी ,उदार</ref> से माँगते हैं

कभी ज़माना था उसकी तलब में रहते थे
और अब ये हाल है ख़ुद को उसी से माँगते हैं





शब्दार्थ
<references/>